यह तो स्पष्ट ही है कि दीर्घा के सीमित दायरे में मध्यप्रदेश की समस्त जनजातियों के आवास प्रकारों को यथावत न दिखाया जा सकता है न ही इस संग्रहालय के संदर्भ में यह वांछनीय है। यहाँ इन सभी समुदायों के आवास की वास्तुगत, शिल्पगत, व्यवहारगत और वस्तुगत (उपयुक्त सामग्री) विशेषताओं की ओर इशारा भर करने की कोशिश की जा रही है।
इन आदिवासी समुदायों के आवास अथवा घर की संरचना में पिछले पाँच-सात दशकों में क्या बदलाव आये हैं-आ रहे हैं, इन्हें भी यहाँ लक्षित किया जा सकता है। उदाहरण के लिये बैगा घर की दीवारें पहले किसी मजबूत झाड़ी या घास की टटिया बाँधकर, बाद में बाँस की टटिया पर मिट्टी की छपाई कर, फिर पूरी तरह से मिट्टी और फिर ईंट प्रयोग कर बनाई जाने लगी। छत छवाने के लिये भी पहले पत्ते, फिर घास के खास प्रकार, फिर कवेलू और फिर फेक्ट्री निर्मित इंग्लिश कवेलूओं के काम में लाये जाने लगे। बदलाव की इस प्रक्रिया को जानना तथा उसके कारणों की पड़ताल आदिवासी क्षेत्रों में आये बदलावों को भी समझने में मदद करेगा।
इन घरों में मुक्ताकाश आँगन का महत्त्व, आँगन में पेड़ का महत्त्व, घर के प्रांगण में मवेशी की घर के सदस्यों जैसी उपस्थिति के विचार को भी भाँति-भाँति से प्रदर्शित किया जा रहा है।
कुछ घरों का केवल बाह्य स्वरूप बनाकर आभास खड़ा किया जायेगा, तो कुछ की भौगोलीय स्थिति का आभास भी पैदा करने की कोशिश की जायेगी। उदाहरण के लिये भील घर प्राय: अकेले और किसी छोटी सी टेकरी पर होते हैं, और वैसा ही कुछ यहाँ दिखाने की चेष्टा की जा रही है। घर से जुड़ी महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ चित्रांकन आदि भी यहाँ किये जा रहे है। सादगी के बीच इनमें से प्रत्येक घर के विशिष्टता तथा उनके द्वारा प्रयुक्त की जा रही प्राकृतिक सामग्री-लकड़ी, मिट्टी की अनेकानेक संभावनाओं को भी यहाँ लक्षित किया जा सकता है।
दरअसल यह दीर्घा स्वयं एक आँगन है, जिससें प्रदेश के विभिन्न आदिवासी समुदायों के घर एक दूसरे से सटे, एक दूसरे में झाँकते हुए, एक दूसरे का पड़ौस निर्मित कर रहे हैं। किसी एक समुदाय के एक दरवाजे से घुस कर आप कभी खुद को किसी अन्य घर में निकलता पायेंगे, तो कभी बैगा मोहल्ले की गली आपको सीधे किसी निर्जन टेकरी पर बने भील घर तक ले जाने का वादा करेगी।
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