कलाबोध

कलाबोध

जीवन शैली दर्शाती दीर्घा से कलाबोध सम्मत दीर्घा में प्रवेश करने वाले गलियारे की खिड़कियों में काँच की दो सतहों के बीच आदिवासी गहने साज-सिंगार के अन्य उपादान जड़े रहेंगे। यह एक तरह की गहनों और श्रृंगार मूलक वस्तुओं से निर्मित जाली होगी। इस गलियारे में लकड़ी तथा टेराकोटा में निर्मित मानव आकृतियाँ भी होंगी, जिन पर गुदने के आकार होंगे। कलाभिव्यक्ति का संभवत: पहला कैनवास मानव देह ही रही हो, लिहाज़ा, कलाबोध दीर्घा में प्रवेश देह के श्रृँगार के विविध उपायों को दर्शाने से करना युक्तियुक्त जान पड़ता है।

जैसा कि पूर्व में भी कहा जा चुका है- एक ओर जहाँ आदिवासी जीवन में अलग से ‘कला’ जैसी कोई चीज़ नहीं है, वहीं इस बात का दूसरा पहलू या बात को उलट कर देखें तो यहाँ कोई भी साधारण से साधारण वस्तु मसलन बुहारी या झाडू अथवा सिलबट्टा तक मांगलिकता में सराबोर सौन्दर्यबोध की छुअन से अछूता नहीं है।

ऐसे में किन अभिव्यक्तियों को कलाबोध दीर्घा के लिये चुना जाए, किन्हें छोड़ दिया जाये यह तय करना कठिन है। इसीलिए कलाबोध दीर्घा में हमने जीवन चक्र से जुड़े संस्कारों तथा ऋतु चक्र से जुड़े गीत-पर्वों-मिथकों, अनुष्ठानों को समेटने का उद्देश्य रखा है।

दीर्घा के मध्य में विवाह का मण्डप है। यह मण्डप चार विशाल पेड़ों की छत्र-छाया में बनेगा। जिन पर चार अलग जनजातियों के सृष्टि मिथक उकेरे जायेंगे। यह कहना अधिक युक्तिसंगत है कि विवाह जो जीवन में संपूर्णता और नैरंतर्य की पीठिका है, उस पर सृष्टि मिथकों की छत्र-छाया होगी।
प्रत्येक दीर्घा में किसी न किसी युक्ति से आने वाले दर्शक को ऊपर-नीचे कई कोणों से दीर्घा के समस्त रचाव को देखने और अनुभूत करने का अवसर देने की कोशिश की जा रही है। कलाबोध दीर्घा के मध्य बन रहे विवाह मण्डप में भी दो तल निर्मित किए जा रहे हैं, जिससे दर्शक न केवल इस विवाह मण्डप तथा पेड़ों पर उकेरे गए मिथकों को बारीकी से देख पायेंगे, बल्कि समूची दीर्घा का विहंगम रूप भी देख सकेंगे। दीर्घा के एक द्वार पर भील मृतात्माओं से जुड़े अनुष्ठान मृत्यु तथा मृतकलोक की परिकल्पना से जुड़ी टेराकोटा की आकृतियाँ लगाई गई हैं। यह आकृतियाँ (ढाबे) मृतात्माओं को समर्पित की जाती हैं, एक तरह से ये उनका अल्पकालिक बसेरा है। इन टेराकोटा वस्तुओं को स्थान विशेष पर ज़मीन पर स्थापित किया जाता है, किन्तु यहाँ उन्हें बिल्कुल अलग आयाम में लगाने का कारण दर्शक को उसके पीछे की मूल अवधारणा से एक अलग कोण से जुडऩे का अवसर प्रदान करना है। इस मृतात्माओं के लोक को जैसे हम किसी अन्य धरातल से या कहें कि धरती को किसी अन्य धरातल से देख रहे हैं। इस मृतकलोक को ब्रह्माण में विचरते किसी नक्षत्रलोक की तरह भी देखे जाने की संभावना है। भील-भिलाला मिथक में मृतकों के एक अलग लोक की परिकल्पना है। परिवार में खास अवसरों पर इन पूर्वजों को मृतकों की खास ‘मुरूवा’ भाषा में निमंत्रित किया जाता है। इन ढाबों के भीतर खास अवसर पर दीए रखे जाते हैं, यहाँ यह अनुभव प्रकाश संयोजन से किया जायेगा।

विवाह के अवसर पर नव-वधू को कई जनजातीय समुदायों में पीतल का कंगन या अँगूठी दी जाती है, जिस पर कुँआ/बावड़ी/हल चलाती हुई बैलों की जोड़ी/किसान/खेत में खड़ी फसल आदि उर्वरा शक्ति के सार को संजोये हुए प्रतीक उकेरे जाते हैं। यह कंगन प्राय: बहुत छोटा होता है तथा इसे पहना नहीं जाता। इसे बीज तैयार करने के अवसर पर वह हाथ में पकड़ लेती है। इस कंगन को यहाँ विशाल रूप में बनाया गया है।

दीर्घा में विवाह के अतिरिक्त शिशु जन्म तथा मृत्यु संस्कार को भी उसकी समग्रता में दिखाया जाएगा। यहाँ इनसे जुड़ी कथाओं, मान्यताओं, रीति-रिवाजों, भौतिक वस्तुओं आदि से उस क्रिया के समस्त पक्षों को देखा-समझा जा सकेगा।

ऋतुओं और खेती के चक्र से जुड़े पर्व-त्योहार, उनसे जुड़े नृत्य-गान, पहनावे और लालित्य को मूर्त करने की कोशिश की जायेगी। भीलों के वाद्ययंत्रों के बनने के मिथक, गोंडो के बड़ादेव के साजा वृक्ष में निवास करने और उसी वृक्ष से बने ‘बाना’ नामक वाद्ययंत्र के बजाये जाने से अंतत: प्रसन्न हो उनके प्रकट होने की कथा को भी बड़े रूपों में बनाये जाने की प्रक्रिया चल रही है। एक विशाल सूखे वृक्ष के प्राकृतिक खोखले हो गये ठूँठ का प्रयोग करते हुए बाना बनाया जा रहा है। कई जटिल अभिप्रायों की तहों को अपने में संजोने वाले छोटे से वाद्य बाना को एक नैसर्गिक विराटता खासकर, उनके नाद को पकडऩे तथा उस वाद्य में समाहित जटिलताओं को बेहतर समझने का अवसर मिलेगा।

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